हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 123

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्‍याम-सुन्‍दर

प्रिया के वस्त्राभूषणों के प्रति भी विहारीलाल का अमित आकर्षण है। उन वस्त्राभूषणों को धारण करने का चाव उनके चित्त में सदा बना रहता है। ‘उन पट-भूषणों को पहिनकर वे सहचरि का वेश बनाते हैं और अत्‍यन्‍त अनुराग पूर्वक हाथ में फूलों का पंखा लेकर प्रिया की सेवा में घूमते रहते हैं।'

ते पट-भूषण प‍हरि पिय, सहचरि कौ वपु बानि।
फिरत लिये अनुराग सौ, कुसुम बीजना पानि।।[1]

सखी वेश में उनका त्रिभुवन-विमोहन रूप और भी निखर आता है। स्‍वामी हरिदास जी उनकी इस विचित्रता पर आश्‍चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं, ‘हे श्‍याम किशोर जू, तुम्‍हारे अंग पर तुम्‍हारा पीतांवर एवं श्रीराधा की चूनरी समान रूप से खिलते हैं। तुमको ऐसा रूप कहाँ से मिला है, इस उधेड़-बुन में मैं रात-दिन पड़ा रहता हूँ।

श्‍याम किशोर जू तुमकौं दोऊ रंग रंगित पीतांवर-चूनरी।
एसौ रूप कहाँ तुम पायौ अहनिंस सोच उधेरा-बूनरी।।[2]

अपने वस्त्राभूषणों के द्वारा घनश्‍याम के रूप में अभिवृद्धि होती देखकर श्रीराधा स्‍वयं उनकी वेश-रचना को पूर्ण बना देती हैं। वे हँसकर लाड़ सहित श्‍याम सखी के भाल पर सौभाग्‍य चिह्न–बैंदी-लगाती हैं और अपनी बेसर उनको पहिना देती हैं। श्‍यामसुन्‍दर के मन में मोद बढ़ जाता है और उनके मुख पर नई रूप-छटा चढ़ जाती है। श्रीराधा और सखीगण उनकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखते रह जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री ध्रुवदास-प्रेमावली
  2. केलिमाल- 72

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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