श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्याम-सुन्दर
इस प्रकार, नवधा-भक्ति का सांगोपांग निर्वाह करने के बाद श्यामसुन्दर अपनी प्रियतमा से यह वरदान माँगते हैं। माँगत दान मान जिन करौ, देहु बचन मेरे कर धरौ । गोपीजनों का प्रेम श्रीकृष्ण की सौन्दर्य-गरिमा के कारण प्रेमाभक्ति बन गया था; निकुंज-विथियों में और की रूप-गरिमा के कारण श्यामसुन्दर का प्रेम प्रेमाभक्ति बना है। श्रीमद्भागवत में तथा कृष्ण–भक्त कवियों की रचनाओं में श्री कृष्ण ने गोपियों के प्रति भी अत्यन्त दैन्य और अधीनता प्रकट की है, किन्तु गोपीजनों के सामने वे अपनी कृतज्ञता के प्रकाशन के लिये दीन बने हैं। वे गोपीजनों के प्रेम के अधीन हैं, किन्तु यह अधीनता उस अधीनता से भिन्न है जो अपनी विवशता के कारण होती है। नित्य प्रेम-विहार में श्री राधा के प्रति अपने अपार अनुराग से विवश बनकर वे अधीन बने हैं। यह दैन्य उतना ही निर्व्याज, निर्हेतुक और सहज है जितना गोपी-जनों का उनके प्रति। श्याम सुन्दर की उपरोक्त दोनों स्थितियों को सहचरि सुख जी ने बड़े रोचक ढ़ंग से व्यक्त किया है। अपने एक वसंत के पद मैं वे कहते हैं, ‘जो ‘रसिक छैल’ अपनी छाँह तक किसी को नहीं छूने देते थे, वे अब श्रीराधा की छाँह छूना चाहते हैं और छू नहीं पाते। रस की दल-दल में फँस कर वे अपने सारे उत्पात भूल गये हैं। नित्य-विहार में, सखियों ने उनको श्रीराधा के रंग में इस प्रकार रँग दिया है कि उस रंग से उन्होंने सारे व्रज को रँग डाला है। छाँह छुवन नही देत हुते अब चाहत छाँह छुवन नहिं पावत, ‘व्रज की गैल’ के पदकर्ता का तात्पर्य श्रीकृष्ण और गोपी जनों की, जिनमें श्रीराधा भी सम्मिलित हैं, उन व्रज-लीलाओं से है जिनमें श्रीकृष्ण उपास्य हैं और गोपियाँ उपासक हैं। इन लालाओं से भिन्न राधा-श्यामसुन्दर की वे एकान्त लीलायें हैं, जिनमें श्री कृष्ण के प्रति कान्त-भाव रखने वाली किसी अन्य गोपी का प्रवेश नहीं है। यह लीलायें ‘निकुंज’ की लीलायें कहलाती हैं। इनमें श्यामसुन्दर उपासक हैं और श्रीराधा उपास्य हैं। राधा वल्लभीय सिद्धान्त में परात्पर प्रेम के प्रागट्य की जो चार भूमिकायें मानी गई हैं, उनमें से प्रथम भूमिका से संबंधित लीला ‘निकुंज-लीला है और द्वितीय भूमिका से संबंधित लीला ‘व्रज-लीला’ है। व्रज की लीलायें निकुंज-लीलानुसारिणी तो नहीं होतीं किन्तु निकुंज में श्याम सुन्दर जिस अद्भुत प्रेम-रंग में रँगे जाते हैं, वही उनकी व्रज-लीलाओं को रंगीन बनाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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