हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 119

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्‍याम-सुन्‍दर

'द्वादश-यश’-कार स्‍वामी चतुर्भुजदासजी ने अपने ‘श्रीराधा प्रताप यश’ में श्‍यामसुन्‍दर के द्वारा श्री राधा के प्रति श्रवणादिकों का प्रेममय आचरण बड़े सुन्‍दर ढंग से दिखलाया है। प्रथम तीन के संबंध में वे कहते हैं,

श्रवणानि सुजस सखिनु पहँ सुनत, राधा नाम रैन-दिन भनत।
सुमिरन मन बिसरै नहीं।

श्रीराधा के अत्यन्त सुन्‍दर और सुकुमार चरणों पर रीझ कर श्‍यामसुन्‍दर उनमें जो जावक के द्वारा चित्र-रचना करते हैं वही ‘पाद-सेवन’ बन जाता है और प्रिया का नख-शिख श्रृंगार करते हैं वही उनका ‘अर्चन’ होता है।

जावक रचि चरननि जु बनाई, नूपुर माल रुचिर पहिनाई।
श्रीराधा सु प्रताप जस।।
मृगमद तिलक देत रचि भाल, पहिरावत पहुपनि की माल।
अपने कर कबरी गुथत।।
भूषण पट पहिरावत आइ, मुख बीरी हरि देत बनाइ।
दर्पन जै जु दिखावहीं।।
देखि रूप डारत तृन तोरि। .............................
वंदन, दास्‍य और आत्‍म निवेदन तो स्‍पष्ट ही है।
..............................वंदत चरण सीस कर जोरि।
दासंतन सब विधि करत।।
तन, मन, प्रान समर्पन कियौ, मीन-नीर ज्‍यौं, त्‍यौं पन लियौ।
श्रीराधा सु प्रताप जस।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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