श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्याम-सुन्दर
‘हित चतुरासी’ में श्यामसुन्दर ने अपनी देह को श्रीराधा-पद-पंकज का सहज मंदिर बतलाया है, तब पद-पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह' ।[1] भक्ति का अर्थ ‘सेवा’ है। भक्ति के उदय के साथ सेवा का चाव बढ़ता है। सेव्य की रुचि लेकर उसकी सेवा करना, सेवा का आदर्श माना जाता है। अपनी अपार सेवा-रुचि को श्रीराधा के आगे प्रगट करते हुए श्याम-सुन्दर कहते हैं, हे प्रिया, तुम जहाँ चरण रखती हो वहाँ मेरा मन छाया करता फिरता है। मेरी अनेक मुर्तिया तुम्हारे ऊपर चँवर ढुराती हैं, कोई तुमको पान अर्पण करती हैं, कोई दर्पण दिखाती है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की सेवायें, जैसा भी मुझे कोई बतला देता है, मैं तुम्हारी रुचि लेकर करता रहता हूँ। इस प्रकार, हर एक उपाय से मैं तुम्हारी प्रसन्नता प्राप्त करने की चेष्टा करता हूँ।' जहाँ-जहाँ चरण परत प्यारीजू तेरे। तहाँ-तहाँ मेरौ मन करत फिरत परछाँही। बहुत मूरित मेरी चँवर ढुरावत कोऊ बीरी खबावत, एक आरसी लै जाहीं। और सेवा बहुत भाँतिन की जैसी ये कहैं कोऊ तैसी ये करौं ज्यौं रुचि जानौं जाही। श्री हरिदास के स्वामी श्यामा कौ भलौ मनावत दाइ उपाई।[2] श्रीराधा-नाम का माहात्म्य ख्यापन करते हुए हिताचार्य ने कहा है ‘जिसका स्वयं श्रीहरि प्रेम पूर्वक श्रवण करते हैं, जाप करते हैं, सखीजनों में सहर्ष गान करते हैं तथा प्रेमाश्रु-पूर्ण मुख से उच्चारण करते हैं, वह अमृत-रूप-राधा-नाम मेरा जीवन है।’ प्रेम्णाऽऽकर्णयते,जपत्यथ,मुदा गायत्यथाऽलिष्वयं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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