श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्याम-सुन्दर
श्याम-सुन्दर की अद्भुत आसक्ति की परस्पर चर्चा करते हुए सखीगण कहती हैं, ‘हम इनके नेत्रों की बात क्या कहैं। ये श्रीराधा के मुख-कमल-रस में भ्रमर के समान अटके हुए हैं। और अन्यत्र नहीं जाते। जब ये पलकों के संपुट में रुकते हैं तो अत्यन्त आतुर बनकर अकुलाने लगते हैं। श्रीराधा के कानों के कमल, नेत्रों के अंजन और कुचों के बीच के मृगमद बनकर भी इनको शांति नहीं मिलती। श्यामसुन्दर तो अपनी और प्रिया की देहों को एक कर लेना चाहते हैं।’ कहा कहौं इन नैननि की बात। किन्तु इसमें एक कठिनाई आती है और उससे घबरा कर वे आकुलता पूर्वक श्रीराधा से कहते हैं, ‘हे प्रिया, मन तो यह चाहता है कि तुम्हारे मन के साथ अपने मन को मिला कर तुम्हारे तन को अपने तन में समालूँ। किन्तु फिर तुमको देखूँगा कैसे ? यह प्रश्न नहीं सुलझता। मेरी आसक्ति केवल तुममें है और मैं जीवन का यही लाभ मानता हूँ कि मेरे नेत्र तुम्हारे नेत्रों से मिले रहैं। मैं अति दीन हूँ और मेरी इतनी सामर्थ्य कहाँ है कि तुम्हारे भ्रू-विक्षेप को सह सकूँ। अब तो तुम ही इस काम-दग्ध बेचारे को अपने बाँह-बल से बचा लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हि. च. 60
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