हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 115

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्‍याम-सुन्‍दर

श्‍याम-सुन्‍दर की अद्भुत आसक्ति की परस्‍पर चर्चा करते हुए सखीगण कहती हैं, ‘हम इनके नेत्रों की बात क्‍या कहैं। ये श्रीराधा के मुख-कमल-रस में भ्रमर के समान अटके हुए हैं। और अन्‍यत्र नहीं जाते। जब ये पलकों के संपुट में रुकते हैं तो अत्‍यन्‍त आतुर बनकर अकुलाने लगते हैं। श्रीराधा के कानों के कमल, नेत्रों के अंजन और कुचों के बीच के मृगमद बनकर भी इनको शांति नहीं मिलती। श्‍यामसुन्‍दर तो अपनी और प्रिया की देहों को एक कर लेना चाहते हैं।’

कहा कहौं इन नैननि की बात।
ये अलि प्रिया-वदन-अंबुज-रस अटके अनत न जात।।
जब-जब रुकत पलक संपुट लट अति आतुर अकुलात।
लंपट लव निमेष अंतर तै अलप कलप सत-सात।।
श्रुति पर कंज, दृगंजन, कुच बिच मृगमदह्वै न समात।
(जैश्री) हित हरिवंश नाभि सर जलचर जाँचत साँदल गात।।[1]

किन्‍तु इसमें एक कठिनाई आती है और उससे घबरा कर वे आकुलता पूर्वक श्रीराधा से कहते हैं, ‘हे प्रिया, मन तो यह चाहता है कि तुम्‍हारे मन के साथ अपने मन को मिला कर तुम्‍हारे तन को अपने तन में समालूँ। किन्‍तु फि‍र तुमको देखूँगा कैसे ? यह प्रश्‍न नहीं सुलझता। मेरी आसक्ति केवल तुममें है और मैं जीवन का यही लाभ मानता हूँ कि मेरे नेत्र तुम्‍हारे नेत्रों से मिले रहैं। मैं अति दीन हूँ और मेरी इतनी सामर्थ्‍य कहाँ है कि तुम्‍हारे भ्रू-विक्षेप को सह सकूँ। अब तो तुम ही इस काम-दग्‍ध बेचारे को अपने बाँह-बल से बचा लो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 60

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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