हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 112

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

सब रसिक एकमेक करि सानै अनुभव करि उर हीने।
मरम न पावैं, तरक उठावैं, अपु कौ मान प्रवीने।।
गौर-श्‍याम कौ प्रेम इकौना विरले रसिक जु चीन्‍हे।
रस पुनि रूप सवादिनु वृन्दावन हित द्वै वपु कीन्‍है।।[1]

हितप्रभु ने, एक पद में, इस अनोखी श्रृंगार रस रूपी नदी को जगत-पावनी कहा है, ‘सौरत रस-रूपी नदी जगत्-पावनी’। दूसरे पद में उन्‍होंने नव निकुंज की श्रृंगार-केलि को जगत् के द्वारा वंदना करने योग्‍य बतलाया है- नव निकुंज, श्‍याम-केलि जगत वंदिनी।

श्री हरिराम व्‍यास ने अपने भाग्‍य की सराहना करते हुए राधा-हरि के इस परम पावन अनुराग की वंदना की है।

बन्‍दौं राधा-हरि कौ अनुराग।
तन-मन एक, अनेक रंग भरे, मनहुँ रागिनि-राग।।
अंग-अंग लपटाने मानहुँ, प्रेम-रंग कौ पाग।
रूप अनूप सकल गुण सीवाँ, कहत न बनै सुहाग।।
विहरत कुंज कुटीर धीर,सेवत वृन्‍दावन बाग।
निश दिन छिन न चरन छाँड़त अब व्‍यास दास कौ भाग।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. युगल-स्‍नेह-पत्रिका
  2. व्‍यासवाणी पृ. 202

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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