श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)
छुवत न रसिक रँगीलौ लाल प्यारी जू कौ, प्रेम का काम एक अनोखी चीज हैं अपनी प्रिया का क्षण-क्षण मे आलिंगन करते हुए भी श्यामसुन्दर उनको कभी मन के हाथों से भी नहीं छूते, यह बात इस प्रेम मय काम-क्रीड़ा में ही संभव बनती है। यहाँ प्रेम और काम अपनी शुद्धतम और तीव्रतम कोटियों में रहते हैं और आस्वादक के चित्त की स्थिति अनुकूल बने बिना ही उनका अनुभव नहीं होता। प्रेम-मयी काम-क्रीडा के अनुभव में हमारा लौकिक काम ही बाधक बनता है। वह युगल के बीच में अपनी सी चेष्टायें होती देख कर उनको अपनी ही चेष्टायें मान लेता है और उनके वास्तविक रूप को नही समझ पाता। सेवक जी ने ‘काचेधर्मियों’ के प्रकरण में उन लोगों को निन्दनीय बतलाया है जो इस काम-क्रीडा को समझाते हुये लौकिक वल्लभों-प्रेमीजनों–की प्रीती से श्री राधावल्लभ के प्रेम को प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं और भगवत् प्रेमलीला को लोकिक कामोपभोग का ही मुलम्मा-पालिश-किया हुआ रूप मानते हैं। 'ए मुलम्मा सौ देत उधारि जु वल्लभ सौं बल्लभ परमानत'[1] चाचा हित वृन्दावन दास के शब्दों में ‘अनुभव हीन लोग भगवत प्रेम लीला को लौकिक रसों में सानते हैं। इस लीला के मर्म को न जानकर यह लोग इसके संबंध में तर्क उठाते हैं और अपने को प्रवीण मानते हैं। गौर-श्याम का प्रेम अनोखा है और बिरले रसिक ही उसको पहिचान पाते है। इस प्रेम लीला में स्वयं रस और रूप ने आस्वादकों के लिए दो वपु धारण किये हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ से. वा. 14-10
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