हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 111

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

छुवत न रसिक रँगीलौ लाल प्‍यारी जू कौ,
मन हूँ के करनि सौं छुवत डरत हैं।
प्रेम की नवलासी प्‍यारी सहज ही सुकुमारी,
प्रानन की छाया तिन ऊपर करत है।
नैकु ही कौ हास सखी, सार है विलासन कौ,
जाके हेरे और सब सुख बिसरत है।
अतिही आसक्तता की हित ध्रुव यहै गति,
रिझि-रीझि‍ दूरि ही तैं पाइन परत है।।

प्रेम का काम एक अनोखी चीज हैं अपनी प्रिया का क्षण-क्षण मे आलिंगन करते हुए भी श्‍यामसुन्‍दर उनको कभी मन के हाथों से भी नहीं छूते, यह बात इस प्रेम मय काम-क्रीड़ा में ही संभव बनती है। यहाँ प्रेम और काम अपनी शुद्धतम और तीव्रतम कोटियों में रहते हैं और आस्‍वादक के चित्त की स्थिति अनुकूल बने बिना ही उनका अनुभव नहीं होता। प्रेम-मयी काम-क्रीडा के अनुभव में हमारा लौकिक‍ काम ही बाधक बनता है। वह युगल के बीच में अपनी सी चेष्‍टायें होती देख कर उनको अपनी ही चेष्‍टायें मान लेता है और उनके वास्‍तविक रूप को नही समझ पाता। सेवक जी ने ‘काचेधर्मियों’ के प्रकरण में उन लोगों को निन्‍दनीय बतलाया है जो इस काम-क्रीडा को समझाते हुये लौकिक वल्लभों-प्रेमीजनों–की प्रीती से श्री राधावल्‍लभ के प्रेम को प्रमाणित करने की चेष्‍टा करते हैं और भगवत् प्रेमलीला को लोकिक कामोपभोग का ही मुलम्‍मा-पालिश-किया हुआ रूप मानते हैं।

'ए मुलम्‍मा सौ देत उधारि जु वल्‍लभ सौं बल्‍लभ परमानत'[1]

चाचा हित वृन्‍दावन दास के शब्‍दों में ‘अनुभव हीन लोग भगवत प्रेम लीला को लौकिक रसों में सानते हैं। इस लीला के मर्म को न जानकर यह लोग इसके संबंध में तर्क उठाते हैं और अपने को प्रवीण मानते हैं। गौर-श्‍याम का प्रेम अनोखा है और बिरले रसिक ही उसको पहिचान पाते है। इस प्रेम लीला में स्‍वयं रस और रूप ने आस्‍वादकों के लिए दो वपु धारण किये हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वा. 14-10

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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