हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 103

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

नृत्‍य, संगीत और अभिनय का सहज योग पाकर युगल के अद्भुत सौन्‍दर्य के अनंत-गुणित बन कर वृन्‍दावन की कुंज-कुंज को पूरित कर दिया है। ‘शोभा का नीर युगल के अंगों को, पटों को, भूषणों को और भवन को पूरित करके वृन्‍दावन में चारों ओर उमड़ पड़ा है। उस की तरंगों में सखियों के नैन-मीन पड़े हैं, और उनको यह पता नहीं है कि रात- दिन कहाँ होते हैं। इस उफनती हुई शोभा के कारण वृन्‍दावन की कुंज-कुंज में सुख का पुंज भर रहा है, और वहाँ की हंसी मयूरी और मृगी भी चकोर बन गये हैं। वहाँ रस के दो सागर एक रस बन कर अनंग केलि कर रहे हैं।'

अंगभरि, पटभरि, भूषण भवन भरि,
चल्‍यौ हैं उमड़ि छवि-अंबु चहुँ ओर री।
सखिनु के नैन-मीन परे हैं तरंगनि में,
जानत न कहाँ होत आली निसि-भोर री।।
वृंदावन कुंज-कुंज रह्यो पूरि सुख-पुंज,
हंसी और मोरी मृगी भये चकोर री।
हितध्रुव एकरस रस के समुद्र दोऊ,
नागर अनंग-केलि नवल किशोर री।

प्रेम-विहार में युगल के प्रेम और रूप परस्‍पर एक रस बनकर अपनी रसोन्‍मत्त स्थितियों में सदैव स्थित बने रहते हैं। हितकर ने श्‍यामा-श्‍याम को ‘विविध गुणों से रमणीय बने हुए करिणी-गज' कहा है- करि‍नी-करि मत्त मानो विविध गुन रामिनी।’ और इस रूप में वर्णन करने का हेतु यह बतलाया है कि इन दोनों के हृदय में प्रेम की अत्‍यन्‍त फूलन[1] एक समान है- 'हृदय अति फूल समतूल प्रिय-नागरी।’ यह अत्‍यन्‍त फूलन ही युगल को उन्‍मत बनाती है और इसी ने संपूर्ण प्रेम-विहार को रसमत्त बना रखा है। श्रीध्रुवदास कहते हैं ‘इस अद्भुत विहार में यौवन का मद, नव-नेह का मद, रूप तथा मदन का मद-मोद, रसमद रतिमद और चाहमद उन्‍मत्त बनकर विनोद करते रहते हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उल्लास

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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