हिंडोर हरि सँग झूलियै (हो) अरु पिय कौ देहिं झुलाइ।
गई बीति ग्रीषम गरद हितरितु, सरस बरषा आइ।।
अब यहै साध पुरावहू, हो, सुनहु त्रिभुवनराइ।
गोपांगना गोपाल जू सौ, कहतिं गहि गहि पाइ।।
अब गढ़नहार हिंडोरना कौ, ताहि लेहु बुलाइ।
हम रमकि हिंडोरै चढ़ै, अरु तुमहिं देहु झुलाइ।।
बन बननि कोकिल कंठ निरवति, करत दादुर सोर।
घन घटा कारी, स्वेत बगपंगति, निरखि नभ ओर।।
तैसीयै दमकति दामिनी, तैसोइ अंबर घोर।
तैसोइ रटत पपीहरा, तैसोइ बोलत मोर।।
तैसीयै हरियरि भूमि बिलसति होति नहिं रुचि थोरि।
तैसीयै रंग सुरंग बिधि बधु, लेति है चित चोरि।।
तैसीयै नन्ही बूँद बरषति, झमकि झमकि झकोरि।
तैसीयै भरि सरिता सरोवर, उमँगि चली मिति फोरि।।
सुनि बिनय श्रीपति बिहँसि, बोले बिसकरमा सुतधारि।
खचि खंभ कंचन के रुचिर, रचि रजत मरुव मयारि।।
पटुली लगे नग नाग बहु रँग, बनी डांड़ी चारि।
भँवरा भँवै भजि केलि भूले, नगर नागर नारि।।