हर लो प्रभु! मेरी भोग-दासता भारी।
कर लो मुझको ‘निज दास’ नाथ अघहारी॥
मैं रटूँ तुम्हारा नाम नित्य भयहारी!।
मैं सेवा नित तन-मनसे करूँ तुम्हारी॥
मिट जायँ काम-आसक्ति समस्त मुरारी!।
हट जाय मोह-ममता की माया सारी॥
रह जाय न मद-अभिमान, मान-मदहारी!।
हों उदय सहज शुचि दैन्य-विनय बनवारी॥
खुल जायँ ज्ञान के नेत्र दिव्य तमहारी।
दीखे लीला सर्वत्र सदा सुखकारी॥
मैं देखूँ सबमें सदा तुम्हें, मनहारी।
मैं सबका सुख-हित करूँ, सर्वहितकारी!॥
बन जान्नँ लीलाभूमि तुम्हारी प्यारी।
तुम खेलो फिर मनमाने लीलाकारी!॥
रह जाय न कुछ भी सत्ता मेरी न्यारी।
तुम ही लीला, लीलामय-सभी बिहारी!॥