हरि हरि हरि सुमिरी दिन रात -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


हरि हरि हरि सुमिरौ दिन रात। नातरु जनम अकारथ जात।।
सो बातन का एकै बात। हरि हरि हरि सुमिरौ दिन रात।।
हरि कुरुखेत अन्हान सिधाए। तव सब भूपति दरसन आए।।
हरि तिन सबकी आदर कियो। भयी संतुष्टि सबनि की हियो।।
तब भूपति हरि को सिर नाइ। कारन लगे अस्तुति या भाइ।।
परम हंस तुम सबके ईस। वचन तुम्हारे सुनि जगदीस।।
तुम अच्युत अविगत अविनासी। परमानंद सकल सुखरासी।।
तुम तन धारि हरयो भुव भार। नमो नमो तुम्हें बारंबार।।
पुनि रानी रानिनि पै आईं। द्रुवदसुता तब बात चलाई।।
ज्यौ ज्यौ भयो तुम्हारो ब्याह। कहि सुनन की मोहि उत्साह।।
कह्यो सबनि हरि अज अविनासी। भक्त्बछल सब जगत निवासी।।
नहि हम गुन नहि सुंदरताई। भक्त जानिकै सब अपनाई।।
ब्याह सबनि की ज्यो ज्यो भयो। बहुरौ तिन त्यो ही त्यो कह्यो।।
द्रुपदसुता सुनि मन हरषाई। कह्यो धन्य तुम धनि जदुराई।।
धन्य सकल पटरानी रानी। जिन वर पायो सारँग पानी।।
धन्य जो हरि-गुण-अह-निसि गावै। ‘सूरदास’ तिहिं कौ रज पावै।। 4297।।

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