हरि मुख देखै ही परतीति -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


हरि मुख देखै ही परतीति।
जौ तुम कोटि भाँति परमोधौ, जोग ध्यान की रीति।।
‘सूर’ नहीं कछू सयान ज्ञान मैं, यह नीकैं हम जानै।
हौ कहा कहिऐ अनभव कौं, कैसै मन मैं आनै।।
मन एक, एक वह मूरति, भृंगी कीट समानै।
सपथ दै ऊधौ पूछौ, इहिं बिधि कौन सयानै।।3802।।

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