हरि बिनु नाहिन परत रह्यौ।
उत गिरि दुर्गम इत दव दारुन, क्यौं दुख जात सह्यौ।।
उठत जु विरह घूम पावक झर, बरि बरि वायु बह्यौ।
जारि जारि फिरि फूँकि प्रजारत, पलकनि हृदय दह्यौ।।
जद्यपि घृत आए लै ऊधौ, जोग सँदेस कह्यौ।
तद्यपि भस्म न होतिं ‘सूर’ सुनि, चलत गोपाल चह्यौ।।3784।।