हरि बिछुरत फाट्यौ न हियौ।
भयौ कठोर वज्र तै भारी, रहि कै पापी कहा कियौ।।
घोरि हलाहल सुनि री सजनी, तिहि अवसर काहै न पियौ।
मन सुधि गई सँभार न तन की पूरौ दाँव अकूर दियौ।।
कछु न सुहाइ गई निधि जब तै, भवन काज कौ नेम लियौ।
निसिदिन रटत 'सूर' के प्रभु बिनु मरिबौ, तऊ न जात जियौ।।3005।।