हरि तोहिं बारबार सँम्हारै।
कहि कहि नाम सकल जुबतिनि के, नहिं रुचि जिहिं उर धारै।।
कबहुँक आँखि मूँदि करि चाहत, चित धरि ठौर तिहारै।।
तब प्रसिद्ध लीलाबन बिहरत, अब नहिं तुमहिं बिसारै।
जो जाकौ जैसै करि जानै, सो तैसै तिन मानै।
उलटी रीति तुम्हारी सुनिकै, सब अचरज करि जानै।।
क्यौ पतिया पठवै नहिं उनकौ, बाँचि समुझि सुख पावै।
'सूर' स्याम है कुंजधाम मैं, अनंत न मन बिरसावै।।2586।।