हरि तैं बिमुख होइ नर जोइ2 -सूरदास

सूरसागर

तृतीय स्कन्ध

Prev.png
राग बिलावल
हरि-विमुख की निंदा



कष्ट बहुत सो पावै उहाँ। पूर्वजन्म-सुधि आवै तहाँ।
नवम मास पुनि बिनती करै। महाराज, मम दुख यह टरै।
ह्याँ तैं जौ मैं बाहर परौं। अहनिसि भक्ति तुम्हारी करौं।
अब मोपै प्रभु, कृपा करीजै। भक्ति अनन्य आपुनी दोजै।
अरु यह ज्ञान न चित तैं टरै। बार बार यह बिनती करै।
दसम मास पुनि बाहर आवै। तब यह ज्ञान सकल बिसरावै।
बलापन दुख बहु बिधि पावै। जीभ बिना कहि कहा सुनावै।
कबहूँ विष्ठा मैं रहि जाइ। कबहूँ माखी लागैं आइ।
कबहूँ जुबाँ देहि दुख भारी। तिनकौं सो नहिं सकै निवारी।
पुनि जब षष्ठ बरष कौ होइ। इत उत खेल्यौ चाहैं सोइ।
माता-पिता निवारैं जवहाँ। मन मैं दुख पावै सो तबही।
माता-पिता पुत्र तिहिं जानै। बहरू उनसौं नातौ मान।
वर्ष व्यतीत दसक जब होइ। बहुरि किसोर होइ पुमि सोइ।
सुंदर नारी ताहि विवाहै। असन-बसन बहुविधि सो चाहै।
बिना भाग सौ कहाँ तैं आवै। तब वह मन मैं बहु दुख पावै।
पुनि लछमी-हित उद्यम करै। अरु जब उद्यम ख़ाली परै।
तब वह रहै बहुत दुख पाइ। कहै लौं कहों, कह्यो नहिं जाइ।
बहुरौ ताहि बुढ़ापौ आवै। इंद्री-सक्ति सकल मिटि जावैं
कान न सुनै, आँखि नहिं सूझै। बात कहैं सो कछु नहिं बुझै।
खैवेहूँ कौं जब नहिं पावै। तब बहु विधि मन मैं पछितावै।
पुनि दुख पाइ पाइ सो मरै। बिनु हरि-भक्ति नरक मैं परै।
नरक जाइ पुनि बहु दुख पावँ। पुनि-पुनि यौं हौं आवै-जावै।
तऊ नहीं हरि-सुमिरन करै। ताते बार-बार दुख भरै।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः