हरि कौ बिमल जस गावति गोपँगना।
मनिमय आँगन नंदराइ कौ, बाल गोपाल करैं तहँ रँगना।
गिरि-गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत, खेलत है दोउ छगना-मगना।
धूसरि धूरि दुहूँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछँगना।
बसुधा त्रिपद करत नहिं आलस तिनहिं कठिन भयौ देहरी उलँघना?
सूरदास प्रभु ब्रज-वधु निरखतिं, रुचिर हार हिय सोहत बधना।।113।।