हरि की लीला देखि नारद चकित भए4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग घनाश्री
नारदसंशय



तब नारद कर जोरि कह्यौ, तुम अज अनंत हरि।
तुमसे तुम ही ईस नहीं द्वितिया कोउ तुम सरि।।
तुव माया तुव कृपा बिनु, सके नहीं तरि कोइ।
अब मोकौ कीजै कृपा, ज्यौं न बहुरि भ्रम होइ।।
रिषि चरित्र मम देखि, कछू अचरज मति मानौ।
मौ तै द्वितिया और कोउ मन माहँ न आनौ।।
मैं करता मैं भोगता, नहिं यामैं कछु सदेहु।
मेरे गुन गावत फिरौ, लोगनि कौ सुख देहु।।
नारद करि परनाम, चले हरि के गुन गावत।
बार बार हरि रूप ध्यान, हिरदै मैं ध्यावत।।
यह लीला आचरज की, 'सूरदास' कहि गाइ।
ताकौ जो गावै सुनै, सो भवजल तरि जाइ।। 4210।।

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