सिंहासन बैठारि के, धोए चरन बनाइ ।
चरनोदक सिर धरि कह्यौ, कृपा करी रिषिराइ ।।
तब नारद हँसि कह्यौ, सुनौ त्रिभुवनपति राई ।
तुम देवनि के देव, देत हौ मोहि बड़ाई ।।
विधि महेस सेवत तुम्है, मैं बपुरा किहिं माहिं ।
कहै तुम्है प्रभु देवता, यामै अचरज नाहि ।।
और गेह रिषि गए, तहाँ देखे जदुराई ।
चँवर दुरावति नारि, करति दासी सेवकाई ।।
रिषि कौ आवत देखि हरि कियौ बहुत सनमान ।
ह्वाँ हूँ तै नारद चले, करि ऐसौ अनुमान ।।
जा गृह मैं हौ जात, स्याम आगै ही आवत ।
तातै छाँड़ि सुभाव जाउ अबकै मैं धावत ।।
जहँ नारद स्रम करि गए, तहँ देखे घनस्याम ।
बालनि सो क्रीड़ा करत, कर जोरे खरी बाम ।।