हरि आवत गाइनि के पाछे।
मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल तैं आछे।
मुरली अधर धरन सीखत हैं, बनमाला पीतांबर काछे।
ग्वाल बाल सब बरन-बरन के, कोटि मदन की छबि किए पाछे।
पहुँचे आइ स्याम ब्रज पुर मैं, धरहिं चले मोहन बल आछे।
सूरदास प्रभु दोउ जननी मिलि, लेतिं बलाइ बोलि मुख बाछे।।507।।