हरिरामदास महाराज

हरिरामदास महाराज
हरिरामदास महाराज
पूरा नाम श्रीहरिरामदासजी महाराज
जन्म भूमि सिंहथल ग्राम, बीकानेर, राजस्थान
मृत्यु संवत 1835 विक्रमी (1778 ई.)
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र रामस्नेही शाखा के आद्याचार्य।
शिक्षा छोटी अवस्‍था में ही ज्‍योतिष, योग, वेदान्‍तादि शास्‍त्रों में आप कुशल हो गये थे।
प्रसिद्धि संत
नागरिकता भारतीय
गुरु महात्‍मा श्रीजैमलदास जी महाराज
अन्य जानकारी जीवों के कल्‍याणार्थ आपने वेद, वेदान्‍त, उपनिषद और योगशास्‍त्र के सिद्धान्‍तानुसार सारगर्भित अनुभवपूर्ण उपदेश दिये, जो वाणी के रूप में आज भी प्रचलित हैं।

हरिरामदास महाराज श्रीरामानन्‍दी वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के अन्‍तर्गत आने वाली रामस्नेही नाम की शाखा के आद्याचार्य थे। रामस्नेही शाखा मारवाड़ प्रान्‍त में प्रसिद्ध है।

जन्म तथा शिक्षा

बीकानेर से नौ कोस पूर्व में सिंहथल नामक गांव है, वहाँ भाग्‍यचन्‍द जी जोशी नामक ब्राह्मण के घर हरिरामदास महाराज का प्रादुर्भाव हुआ था। विशुद्धबुद्धि होने से छोटी अवस्‍था में ही ज्‍योतिष, योग, वेदान्‍तादि शास्‍त्रों में आप कुशल हो गये। अनन्‍तर भक्ति, विरक्ति और उपरति के तीव्र भावों के कारण आप दुलचासर ग्राम में श्रीरामानन्‍दी वैष्‍णव महात्‍मा श्रीजैमलदास जी महाराज के शरणागत हुए। आपने संवत 1700 विक्रमी (1643 ई.) आषाढ़ कृष्‍णा त्रयोदशी को उनसे दीक्षा ली। पश्‍चात आप श्रीगुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्‍त कर सिंहथल पधारे।

पूर्ण योगी

हरिरामदास महाराज प्रतिदिन संध्‍या होते ही सिंहथल से सात कोस दुलचासर ग्राम में अपने गुरुदेव के पास चले जाते थे और रातभर सत्‍संग करके प्रात: सूर्योदय से पहले वापस सिंहथल लौट आते थे। इस तरह छ: महीने बीत गये। इसके बाद श्रीगुरुदेव की विशेष आज्ञा के कारण आप प्रतिदिन न जाकर महीने में एक बार गुरुदर्शनार्थ पधारते रहे और कुछ ही दिनों में श्रीसद्गुरु कृपा से पूर्ण योगी हो गये। जीवों के कल्‍याणार्थ आपने वेद, वेदान्‍त, उपनिषद और योगशास्‍त्र के सिद्धान्‍तानुसार सारगर्भित अनुभवपूर्ण उपदेश दिये, जो वाणी के रूप में आज भी प्रचलित हैं।

चमत्कारिक प्रसंग

इनके सहस्‍त्रों शिष्‍य-प्रशिष्‍य हुए तथा आपके जीवन में अनेकों चमत्‍कार हुए। कुछ का विवरण इस प्रकार है-

  • स्‍थानीय स्‍वरूपसिंह जी नामक बारहट दैवयोग से बहुत ही आर्थिक कष्‍ट में पड़कर श्रीमहाराज की शरण हुए और आपकी दया से उस संकट से मुक्‍त होने के साथ ही भक्ति के पात्र भी हो गये। इस विषय में एक दोहा प्रचलित है-

"गायौ गुन गोबिंद को, पायौ द्रव्‍य अमाप।
आयौ साथ स्‍वरूप के, सदगुरु द्याल प्रताप।।"

  • एक बार प्राय: सब शिष्‍यों ने आपके जीवित महोत्‍सव के लिये संवत 1834 विक्रमी (1777 ई.) चैत्र कृष्‍ण सप्‍तमी का दिन निश्‍चय कर सबको आमंत्रित कर दिया। उत्‍सव की तैयारी होने लगी, परंतु उक्‍त निश्चित तिथि से पंद्रह दिन पूर्व ही आप अचानक शरीर छोड़कर भगवद्धाम पधार गये। इससे शिष्‍यों को अत्‍यन्‍त दु:ख हुआ। शिष्‍यों के दु:ख से करुणार्द्र होकर आप भगवान से एक मास की आज्ञा लेकर पुन: लौट आये। अब शिष्‍यों के आनन्‍द का पार नहीं रहा तथा सारे काम फिर धूमधाम से होने लगे। बहुत जनसमुदाय होने से, जिन्‍हें पानी का ठेका दिया था, वे पर्याप्‍त पानी नहीं पहुँचा सके। बीकानेर के गांवों में जल का अभाव प्रसिद्ध है। लोग घबरा गये। तब शिष्‍यों की प्रार्थना पर आश्‍वासन देते हुए आपने कहा- "घबराओ नहीं, ईश्‍वर सब आवश्‍यकताओं की पूर्ति अपने-आप ही करेंगे।" इतना कहकर स्‍वयं अपनी कुटी में ध्‍यानस्‍थ हो गये। एक-ही-दो घड़ी में प्रभुकृपा से निर्मल आकाश में मेघों ने आकर गर्जना की और चारों ओर जल-ही-जल कर दिया। बड़े आनन्‍द से महोत्‍सव की समाप्ति हुई और लोग अपने-अपने स्‍थानों को चले गये। तब आपने पूर्व-प्रतिज्ञा को यादकर संवत 1835 विक्रमी (1778 ई.) चैत्र शुक्‍ला सप्‍तमी शुक्रवार को तीन पहर पहले ही अन्‍त्‍येष्टि-क्रिया की सब सामग्री मंगवा ली और निरदिष्‍ट समय पर शरीर छोड़ दिया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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