हरष भए नँदलाल बैठि 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


प्रेम सहित वै मिलत है, जे उपजाए आजु।
जसुमति मिलि सुत सौं कहत रेनि करत किहि काज।
मैं घर आवन कहौं, सखा संग कोउ नहिं आवैं।
देखत बन अति अगम डरौं वै मोहिं डरपावैं।
बार-बार उर लाइकै, लै बलाइ पछिताइ।
काल्हिहिं तै बेई सबै, ल्यावैं गाइ चराइ।
यह सुनि कै हरि हँसे, काल्हि मेरी जाइ बलैया।
भूख लगी मोहि बहुत, तरतहीं दै कछु मैया।
माखन दीन्हौ हाथ कै, तब लौं तुम यह खाहु।
तातौ है धाम कौ, तनक तेल सौं न्हाहु।
तब जसुमति गहि बाँह, तुरत हरि लै अन्ह‍वाए।
रोहिनि करि जेवनार, स्याम-बलराम बुलाए।
जेंवत अति रुचि पावहीं, परुसति माता हेत।
जेंइ उठे अँचवन लियौ, दुहुँ कर बीरा देत।
स्याम उनीदे जानि, मातु रचि सेज बिछाई।
तापर पौढ़े लाल अतिहिं मन हरष बढ़ाई।
अघ-मर्दन, विधि गर्ब-हत, करत न लागी बार।
सूरदास प्रभु के चरित, पाबत कोउ न पार।।437।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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