हरषि पिय प्रेम तिय अंक लीन्ही -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग कल्यान


हरषि पिय प्रेम तिय अंक लीन्ही।
प्रिया बिनु बसन करि, उलटि धरि भुजनि भरि, सुरति रति पूरि, अति निबल की हौ।।
आपनै करनखनि अलक कुरवारही, कबहुँ बाँधै अतिहिं लगत लोभा।
कबहुँ मुख मोरि चुंबन देत हरष ह्वै अधर भरि दसन वह उनहिं सोभा।।
बहुरि उपज्यौ काम, राधिकापति स्याम, मगन रसताम नहिं तनु सम्हारै।
'सूर' प्रभु नवल-नवला, नवल कुंज गृह, अत नहिं लहत दोउ रति बिहारै।।1988।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः