हमहिं कहा सखि तन के जतन की, अब या जसहिं मनोहर लीजै।
सकल त्रास सुख याही बपु लौ, छाँड़ि दिए तै कछू न छीजै।।
कुसुमित सेज कुसुमसर सर वर, हरि कै प्रान प्रानपति जीजै।
बिरह थाह जदुनाथ सबनि दै, निधरक सकल मनोरथ कीजै।।
सबनि कहति मन रीस रिसाए, नहिन बसाइ प्रान तजि दीजै।
‘सूर’ सुपति सौ चरचि चतुरई, तुम यह जाइ बधाई लीजै।। 3363।।