हनुमत बल प्रगट भयौ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू
अशोक-वन-भंग


 
हनुमत बल प्रगट भयौ, आज्ञा जब पाई।
जनक-सुता-चरन बंदि, फूल्यौ न समाई।
अगनित तरु- फलसुगंध-मृदुल-मिष्ट-खाटे।
मनसा करि प्रभुहिं अपिं भोजन करि डाटे।
द्रुम गहि उतपाटि लिए, दै-दै किलकारी।
दानव बिन प्रान भए, देखि चरित भारी।
बिहवल-मति कहन गए, जोरे सब हाथा।
बानर वन बिघन कियौं, निसिचर-कुल-नाथा।
वह निसंक, अतिहिं ढीठ, विडरै नहिं भाजै।
मानौ वन-कदलि-मध्य, उनमत गज गाजै।
भानै मठ, कूर, बाइ, सरवर कौ पानी।
गौरि-कंत पूजत जहँ नूतन जल जानी।
पहुँची तब असुर-सैन साखामृग जान्यौ।
मानो जल-जीव समिटि जाल मैं समान्यौ।
तरुवर तब इक उपाटि हनुमत कर लीन्यौ।
किंकर कर पकरि बान तीनि खंड कीन्यौ।
जोजन विस्तार सिला पवन- सुत उपाटी।
किंकर करि बान लच्छर अंतरिच्छ काटी।
आगर इक लोह जटित, लीन्ही वरिवंड।
दुहूँ करनि असुर हयौ, भयौ मांस-पिंड।
दुर्धर परहस्तु-संग आइ सैन भारी।
पवन-पूत दानव-दल ताड़े दिसिचारी।
रोम-रोम हनूमंत लच्छ लच्छ बान।
जहाँ-तहाँ दीसत, कपि करत राम-आन।
मंत्री-सुत पाँच सहित अछयकुँवर सूर।
सैन सहित सबै हते झपटि कै लँगूर।
चतुरानन-बल सँभारि मेघनाद आयौ।
मानौ धन पावस मैं नगपति हे छायौ।
देख्यौ जब दिव्य बान निसिचर कर तान्यौ।
छाँड़यौ तब सूर हनू ब्रह्म–तेज मान्यौ॥96॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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