हँसि बोले गिरधर रस-बानी।
गुरु जन खिखैं कतहिं रिस पावति, काहे कौं पछितानी।।
देह धरे कौ धर्म यहै है, स्वजन कुटुँब गृह-प्रानी।
कहन देहु, कहि कहा करैंगे, अपनी सुरत हिरानी?।।
लोक-लाज काहे कौं छाँड़ति, ब्रजहीं बसैं भुलानी।
सूरदास घट द्वै हैं मन इक, भेद नहीं कछु जानी।।1685।।