हँसि-हँसि कहत कृष्न मुख बानी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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हँसि-हँसि कहत कृष्न मुख बानी। हम नाहिंन रिस तुम पर आनी।।
तुम कत अति संका जिय जानी। भली करी ब्रज बरष्यौ पानी।।
यह सुनि इंद्र अतिहि सकुचान्यौ। व्रज अवतारु नहीं मैं जान्यौ।।।
राखि लेहु त्रिभुवन के नाथा। नहिं मोतैं कोउ और अनाथा।।
फिरि-फिरि चरन धरत लै माथा। छमा करहु राखहु मोहिं साथा।।
रवि आगैं खद्योत प्रकासा। मनि आगैं ज्यौं दीपक नासा।।
कोटि इंद्र रचि कोटि विनासा। मोहिं गरीब की केतिक आसा।।
दीन बचन सुनि भव के बासा। छमा भए जल परयौ हुतासा।।
अमरापति चरननि तर लोटत। रही नहीं मन मैं कछु खोटत।।
उभय भुजा करि लियौ उठाई। सुरपति-सीस अभय कर नार्इ।।
हँसि दीन्ही प्रभु लोक-बड़ाई। श्रीमुख कह्यौ करौ सुख जाई।।
धन्य-धन्य जन के सुखदाई। जै-जै धुनि देवनि मुख गाई।।
सिव, विरंचि चतुरानन, नारद। गौरी-सुत दोऊ सँग सारद।।
रवि, ससि, बरुन, अनल जमराजा। आजु भए पूरन सब काज।।
असरन सरन सदा तुव बानौ। यह लीला प्रभु तुमहीं जानौ।।
माता तौ सुत करै ढिठाई। माता फिरि ताकौ सुखदाई।।
ज्यौं धरनी हल खोदि बिनासै। सनमुख सतगुन फलहिं प्रकासै।।
कर कुठार लै तरुहिं गिरावै। यह काटै वह छाया छावै।।
जैसैं दसन जीभ दलि जाइ। तब कासौं सो करै रिसाइ।।
धनि ब्रज धनि गोकुल बृंदावन। धनि जमुना धनि लता कुंज घन।।
धन्य नंद धनि जननि जसोदा। बाल-केलि हरिकैं रस मोदा।।
अस्तुति सुनि मन हरष बढ़ायौ। साधु-साधु कहि सुरनि सुनायौ।।
तुमहिं राखि असुरनि संहारौं। तन घरि धरनी-भार उतारौं।।
आवत जात बहुत स्रम पायौ। जाहु भवन करि कृपा पठायौ।।
कर सिर धरि-धरि चले देव-गन। पहुँचे अमर-लोक आनँद मन।।
यह लीला सुर घरनि सुनाई। गाइ उठीं सुन-नारि बधाई।।
अमरलोक आनंद भए सब। हर्ष सहित आए सुरपति जब।।
सूरदास सुरपति अति हरष्यौ। जै-जै धुनि, सुमननि ब्रज बरष्यौ।।950।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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