स्याम सैन दै सखी बुलाई।
यह कहि चली जाउँ गृह अपनै, तू तौ मान कियौ री माई।।
अंतर जाइ भए हरि ठाढे, सखी सहज निकसी तहँ जाई।
मुख निरखत दोउ हँसे परस्पर, भवन जाहु मैं लेउँ मनाई।।
अंग दिखाइ गई हँसि प्यारी, सुरत चिह्न नीकी सुघराई।
सूरज-प्रभु-गुन-पार लहै को, जानि बूझि कीन्ही रिसहाई।।2718।।