स्याम तुम्हारी मदन-मुरलिका, नैंसुक सो जग मोह्यौ।
जेते जीव जंतु जल थल के, नाद स्वाद सब पोह्यौ।
जे तप व्रत किए तरनि-सुता-तट, पन गहि पीठि न दीन्ही।
ता तीरथ-तप के फल लैकै, स्याम सोहागिनि कीन्ही।
धरनि धरी, गोबर्धन राख्यौ, कोमल पानि-अधार।
अब हरि लटकि रहत टेढ़े ह्वै, तनक मुरलि कै भार।
धन्य सुघरी सील कुल छाँड़े, राँची वा अनुराग।
अब हरि सींचि सुधा-रस, मेटत तन के पहिले दाग।
निदरि हमैं अवरनि रस पीवति, पढ़ी दूतिका भाइ।
सूरदास कुंजनि तैं प्रगटी, चोरि सौति भई आइ।।656।।