स्याम आ पहुँचे तुरत निकुंज।
सहमे देखि बिषाद भर्यौ अभिमान प्रिया-मुख-कंज॥
नीचे नैन गड़े भूतल पर, सलिल-रहित गंभीर।
कर अवलंब कपोल बाम पर, मन अधीर धरि धीर॥
सिथिल सरीर, पीर अभ्यंतर गए तुरत सब जान।
मेरे दुःख दुखी ह्वै प्यारी, करि बैठी है मान॥
आ समीप अति आर्तभाव सौं, चरननि दृष्टि जमाय।
अति अपराधी-से संभ्रम अति, मन संकोच सुभाय॥
कहन लगे मृदु बचन, बोलि नहिं पाए, उमड़्यौ नेह।
गद्गद कंठ, लगे बरसन दोउ नयन अमित रस-मेह॥
देखि दसा प्रियतम की, भूली राधा सारौ मान।
कंठहार बनि लगी मनावन, उलटे तजि अभिमान॥
बोली-’भई अनिष्टासंका मेरे मन लखि देर।
तुम्हरे आवन में, बिलपी मैं, क्यों है गई अबेर॥