सो हरि-भक्ति पाइ सुख पावै2 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग बिलावल
राज अंवरीष की कथा


 

पुनि रिषिहूँ कौं जारन लाग्यौ। तब रिषि आपन जिय लै भाग्यौ।
ब्रह्म-रुद्र- लोकहुँ रिषि गयौ। उनहूँ ताहि अभय नहिं दयौ।
बहुरौ रिषि बैकुंठ सिधायौ। करि प्रनाम यह बचन सुनायौ।
मैं अपराध भक्त को कीनौ। चक्र सुरसन अति दुख दीनौ।
और कहूँ मै ठौर न पायौ। असरन-सरन जानि कै आयौ।
महाराज अब रक्षा कीजै। मोकौ जरत राखि प्रभु लोजै।
हरि जू कह्यौ, सुनौ रिषिराइ। मो पै तू राख्यौ नहिं जाइ।
तै अपराध भक्त को कीनौ। मै निज भक्तिनि कै आधीनौ।
मम-हित भक्त समल सुख तजै। और सकल तजि मोकौं मजै।
बिन-मम चरन न उनकै आस। परम दयालु सदा मम दास।
उनकै मन नाही सत्राह। तातैं कहौ उनहिं सौं जाइ।
तुमकौ लैहैं वेइ बचाइ। नाही या बिन और उपाइ।
इहाँ नृपति अतिही दुख छयौ। रिरि मम द्वारे प्रै फिर गयौ।
अंवरोष पै तब रिषि आयौ। हाथ जोरि पुनि सीस नवायौ।
रिषिहि देखि नृप कह्मौ या भाइ। लेहु सुदरसन याहि बचाइ।
ब्राह्मन हरि हरि-भक्तनि प्यारौ। तातै अब याकौ मति जारौ।
चक्र सुदरसन सीतल भयौ। अभय-दान दुरवासा लयौ।
पुनि नृप तिहिं भोजन करवायौ। रिषि नृप सौं यह बचन सुनायौ।
मैं नहिं भक्त महातम जान्यौ। जब तें भली-भाँति पहिचान्यौ।
सुक राजा सौं ज्यौं समुझायौ। सूरदास त्योंहीं करि गायौ।
जो यह लीला सुनै-सुनावै। सो हरि-भक्ति पाइ सुख पावै।।5॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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