सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग देवगंधार
संसाररूपी चौपड़ को बिछाये हुए युग बीत गये (अनादिकाल से जीव संचारचक्र में पड़ा है)। त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) के पासों से, कर्म के अंकों से, चारों गति (बाल्य, कैशोर, यौवन एवं वार्धक्य) से कभी भी ‘सारि’ (गोटी) जीती नहीं गयी (कभी भी जीव संसार-चक्र से मुक्त नहीं हुआ)। चारों दिशाओं के चारों फैलावों में मनोरथरूपी घरों (कोष्ठकों) में बार-बार गिनकर (गोटी) लौटा लाता है (बार-बार नाना मनोरथ करके संसार में ही फँसा रहता है)। यह मूर्ख मन काम, क्रोध और मद के साथ बराबर खेल रहा है, पर हार नहीं मानता (उपरत नहीं होता)। बालकों के विनोद के समान (जैसे चौपड़ देखने वाले बच्चों के समान आवेश में अटपटे व्यंग करते हैं, वैसे ही) बार-बार मुख से भलाई और बुराई के (मृदु-कठोर) वचन कहता रहता है, मानो प्रतिपक्षी के दाव को एक ओर टालकर (सांसारिक अभावों को एक बार कुछ पूरा करके) आठा सात और दस अंग डालता है (आठों प्रहर, सातों द्वीपों में, दसों दिशाओं में सफलता पाने के लिये भटकता है)। सोहल युक्तियों से (सम्पूर्ण प्रयत्न से) सोलहों श्रृंगार से युक्त षोडशवर्षीया (युवती) के चित्त (मिजाज) को देखता है (उसकी कृपादृष्टि को जोहता रहता है), शय्यापर उसके साथ सोलहों अंगों से (सम्पूर्ण शरीर से) मिलता है, (यह स्त्री-सहवास ही) मानो (जुए में) सोलह अंक डालता है। पंद्रह अंक डालना पितृ-कार्य (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय एवं रूप, रस, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श के भोग से गर्भाधान-संस्कार करना) है, चौदहों भुवनों में जीव का भटकना चौदह का अंक डालना है, यह शर सदा संधान किया रहता है (जीव सदा भटकता ही रहता है)। रत्नों और स्वर्ण (धन) का लोभ तेरह का अंक डालना है (स्वर्ण साधना की तेरहों युक्तियाँ अपनाना है)। |
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