सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग केदारौ
माधव! इस (मायारूपी) गाय को तनिक रोकिये। यह रात-दिन मार्ग-कुमार्ग में भटकती रहती है, पकड़ में न आने वाली होने के कारण पकड़ी जाती नहीं। सदा अन्यन्त भूखी रहती है, कभी तृपत नही होती, वेदरूपनी वृक्ष को तोड़कर खा लेती है (वैदिक मर्यादाओं को नष्ट कर डालती है)। अठारह घड़ों का पानी पी जाती है, तो भी इसकी तृषा शान्त नहीं होती (अठारहों पुराणों की शिक्षा भी इसे शान्त नहीं कर पाती)। छहों रस यदि इसके आगे रख दूँ, तो भी इसको उनकी गन्ध पसंद नहीं आती (षट्शास्त्रों की चर्चा ही इसे नहीं रुचती)। दूसरे हानिकारक अभक्ष्य पदार्थ खाती रहती है (दुःखदायी पापकर्म करती है)। इसकी कला (दुष्टकर्म) कुछ वर्णन नहीं की जा सकती। आकाश, पृथ्वी, नदियाँ, पर्वत, वन- ये सब चरकर भी यह तृप्त नहीं होती। नीले खुर (तमोगुणरूप), लाल नेत्र (रजोगुणरूप) और श्वेत सींग (सत्त्वगुणरूप) होने से यह लगती बड़ी सुन्दर है, लेकिन अपने खुरों से चौदहों भुवनों को खूँंदती रौंदती रहती है। पता नहीं, अब कहाँ यह समा सकती है (सभी भुवन मायाग्रस्त हैं। माया का विस्तार जाना नहीं जाता)। यह ढीठ है, निष्ठुर है, किसी से भी डरती नहीं, त्रिगुणमयी होकर सामने (मारने) दौड़ती है। यह दुष्ट एवं बली दैत्य, मनुष्य, देवतादि सभी को सिर से उठाकर बलपूर्वक फेंक देती है (सबका पतन करती है)। अपने मुख और भौंहों की शोभा सजा-सँवारकर सबका चित्त चुराये चलती है। नारदादि ऋषिगण, शुकदेवादि मुनिगण भी (इससे बचने के) नाना उपाय करके थक गये। फिर हे कृपानिधान प्रभु! यह सूरदास (तो अंधा है) उसे कैसे चरा (वश में कर) सकता है। |
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