सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग देवगंधार
मुझ एक (जीव) को आकर पाँच (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) धक्का देते हैं हे करुणामय! हे कृपानिधान! मैं कहाँ जाऊँ? इन्होंने तो (मुझे) बहुत नाच नचाया (तंग किया)। ये सब क्रूर (निर्दय) हैं, मुझसे (अपना दिया) ऋण चाहते हैं। (इन्होंने मुझे जो सुख-सुविधा दी उसका बदला चाहते हैं)। अब आप ही कहिये कि उनको क्या दूँ। हे दयानिधान! बिना दिये ये मुझे दुःख देते हैं, कहिये किस प्रकार (क्या) किया जाय। आपकी प्राण रूपी धरोहर (पूँजी) मेरे पास थी, जो आपने मुझे जन्मते ही दिये; उसे मैंने पाँचों को बाँट दी और शरीर उन्होंने जमानत में ले लिया (प्राण और शरीर- दोनों इन्द्रियों के दास बन गये)। अब यदि मन आपके चरणों में लगाता हूँ, जो कि सदा दुःख ही पाता रहता है तो या तो वह स्वयं (आपके चरणों में लगना) अस्वीकार कर देता है, अथवा (बलपूर्वक उसे लगाने पर उसके) दीन वचन सुन कर वे पाँचों मुझे बाँध कर यमलोक भेज देते हैं उनके ऋण (कर्म वासना की) गणना करने पर लाखों निकलता है, उसकी गणना कौन कर सकता है, वह तो अपार है (अतः समस्त कर्मों का फल भोग तो कभी पूरा होना नहीं है)। हे प्रभु! आपने तो मनुष्य-जन्म रूपी हीरा मुझे दिया था और उसे सम्हाल रखने की चेतावनी भी दी थी (किंतु मैंने उसे खो दिया, यह भूल तो मेरी ही है)। गीता, वेद, श्रीमद्भागवत में इस प्रकार कहा गया है कि- प्रभु (सर्वत्र) हैं। यह भी सुना जाता है कि अपने भक्त के आप अत्यन्त समीप रहते हैं। सदा साथ ही रहते हैं। हे स्वामी! जब-जब इस अधम ने अधमता की, तभी-तभी आपने इसे टोका (रोकने का प्रयत्न किया)। अब तो मुझसे बोला भी नहीं जाता, आपसे अपनी गाथा (कथा) कैसे कहूँ। मैं तो जन्म से ही मूर्ख हूँ, पतित हूँ, सर्वथा निर्लज्ज हूँ और इस समय तो खीझा हुआ हूँ। सूरदास जी कहते हैं- मेरे स्वामी (ने जब मेरी यह बात सुनी) तब हँस कर बोले- ‘यह तो मैंने भी सुना है कि वह (मेरी दी हुई पूँजी) तो घट गयी है? (अर्थात् मुझे पता है कि तुम्हारा जीवन-काल भजन के बिना बीत गया है, पर चिन्ता मत करो)।’ |
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