सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री
हे हरि! मैं महान अधम और संसारासक्त हूँ। दूसरों की समझ (सलाह) से मैंने आशारूपी कुबुद्धि वाली बुरी एवं जबर्दस्त स्त्री से विवाह कर लिया। धर्म और सत्य पिता और माता थे, उन दोनों को तो डरा के भगा दिया। ज्ञान और विचार - ये दोनों मेरा हित करने वाले भाई थे, उनसे विरोध कर लिया। दया रूपी बहिन से शत्रुता बाँध ली (दृढ़ कर ली), इसलिये वह बेचारी भग कर छिप गयी। शील और संतोप- ये दोनों मेरे मित्र हैं, उन्हें वह बहुत तंग कर रही हैं। उस (आशारूपी कुनारी) के दो भाई हैं- कपट और लोभ, वे ही (अब मेरे) घर के अधिकारी (संचालक) बन गये हैं। अपनी बहित तृष्णा और सहेली दीनता से उसने बहुत अधिक प्रेम का विस्तार कर लिया है। (यह आशारूपी स्त्री) अत्यन्त निःशंक है, निर्लज्ज है; भाग्यहीना है, घर-घर घूमती हुई थी थकती नहीं। मैं तो वृद्ध हो गया; किंतु वह तरुणी ही है, उसकी अवस्था सदा एक-सी रहती है (आशा कभी बूढ़ी नहीं होती, बुढ़ापे में भी प्रबल रहती है), इसके वश में हो कर मैंने बहुत दुःख पाया है, इसने मेरी सारी शोभा (सम्मान) नष्ट कर दी। क्या किया जाय, जब अपनी जंधा ही नंगी है (स्वयं ही लज्जा-रक्षा में असमर्थ है) तो लाज मरना ही है (विवश हो कर लज्जा सहनी है)। संसार में (सहायता-सहानुभूति की आशा से) जब भी मैंने यह बात कही, तभी मुझ पर अधिक कष्ट पड़ा (संसार में जहाँ आशा की, वहीं निराशा का अधिक दुःख भोगना पड़ा) सूरदास जी कहते हैं- हे स्वामी! हँसते क्या हैं? हमारी विपत्ति को आप मिटा दीजिये। |
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