सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(हे प्रभु!) आप यदि भक्ति के बिना कृपा न करते तो मैं (उसकी) आशा न करता। आपने बहुत-से पतितों का उद्धार किया है, मैंने भी उनका ही अनुसरण (उसके समान ही पापाचरण) किया है। मुख से कोमल वाणी बोलता हूँ, इससे मत समझ लीजिये कि मैं शुद्ध (सदाचार के) मार्ग पर पैर रख सकता (धर्माचरण कर सकता) था। कभी भी कर्मों की वासना मैंने छोड़ी नहीं, आपके समान (दुःखदायी) पाप का ही आचरण करता रहा। प्रत्येक जन्म में सज्जनों का वेश बनाकर (दम्भ के द्वारा) दूसरों के धन का हरण ही करता आया हूँ। भीतर (हृदय में) तो कुछ (श्रद्धा, विश्वास, धर्म-प्रेम) था नहीं, ऊपर से धर्म की ध्वजा ले रखी थी (अपने को धर्मात्मा प्रसिद्ध कर रखा था)। इस प्रकार लोक दिखावा (झूठा प्रदर्शन) करता फिरता था। रात-दिन मन रूपी पिटारी में परस्त्री-गमन की लालसा ही भरता रहा। मैं दुर्मति हूँ, अभिमानी हूँ, अज्ञानी हूँ, सब साधनों से दूर हटा रहा। केवल पेट भरने के लिये चोरी की, हत्या की और अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से लड़ाई करता रहा। जीभ के स्वाद से विवश और लम्पट हो कर जो पच न सके या जो खाने योग्य न हो (अभक्ष्य, अपाच्य, अत्यधिक) भोजन करता था। अपने भाग्य में रात-दिन यही व्यवहार करना लिखवा लिया था (ये असदाचरण मेरे लिये स्वाभाविक बन गये थे)। |
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