सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग परज
अरे मन! माधव से प्रेम कर। तू काम, क्रोध, मद, लोभ और (भक्ति के) विपरीत सभी आचरण छोड़ दे। (प्रेम कैसे करना चाहिये यह इस प्रकार सीख) पुष्पों के रस का उपभोग करने वाला भौंरा वन-वन में घूमता है; परंतु न तो कहीं प्रसन्न होता न कहीं दुखी होता। सभी पुष्पों पर बैठकर उनका रस लेता है; किंतु कमल में स्वयं को बन्धन में डाल देता (कमल बंद होते समय स्वयं उसमें बंद हो जाता) है। (इसी प्रकार तू संसार के पदार्थों का व्यवहार राग-द्वेषरहित होकर कर। सुख में हर्षित और दुःख में दुःखित मत हो। केवल श्रीहरि के चरणों में बँधा रह, वहीं प्रेम कर।) प्रियतम से प्रेम की सीमा (आदर्श) क्या है, इसे सुन! चातक के समान प्रियतम की ओर देखने का व्रत पाल। (चातक) मेघ की आशा से सब दुःख सहता है, मेघ को छोड़कर अन्यत्र कहीं से जल नहीं माँगता (इसी प्रकार तू एकमात्र श्रीहरि से आशा कर)। कमल का कार्य देखो, उसने सूर्य से प्रेम किया है। (सूर्य के ताप से) जल के साथ ही वह सूख गया, प्राण छोड़ दिये उसने; परंतु (सूर्य से) प्रेम करना नहीं छोड़ा। (दीपक की लौरूप) अग्नि में फतिंगा पड़ता है, परंतु दीपक उसकी पीड़ा नहीं समझता। (किंतु फतिगे को दीपक के भाव का विचार नहीं होता।) उसका शरीर दीपक की ज्वाला से जल जाता है; परंतु उसके चित्त में प्रेम का जो रस है, वह भंग नहीं होता। यद्यपि पानी मछली की कोई बात नहीं पूछता मछली की तनिक भी चिन्ता नहीं करता), किंतु मछली पानी का वियोग नहीं सह पाती। शरीर छूटते समय भी उसका प्रेम कम नहीं होता। मछली की (प्रेमपूर्ण) गति को देख (उससे शिक्षा ले) प्रेम की टेक (पूर्ण प्रेम) कबूतर में है, वह बड़े उत्साह से आकाश में ऊपर उड़ जाता है; किंतु यदि ऊपर चढ़कर उसे अपनी स्त्री (कबूतरी नीचे) दिखायी पड़ जाय तो (सीधे) श्वास रोककर पृथ्वी पर गिरता है। हरिण के प्रेम का स्मरण कर (वह संगीत का प्रेमी है); उसके कानों की संगीत से प्रीति है (स्वर की मस्ती में व्याध को देखकर भी) वह पीछे पैर नहीं रख सकता (भाग नहीं सकता। ब्याध का) बाण उसको सामने से छाती में ही लगता है। अरे मूर्ख! अपने प्रियतम पति के प्रेम में पगी (पतिव्रता) स्त्री के जलने को देख, वह प्रेम के संग (प्रेम के कारण) जलती है। चिता पर बैठकर भी उसके चित्त का उत्साह मन्द नहीं पड़ता। (चोरी करने से) लोक-मर्यादा और वेदादि सब शास्त्र मना करते हैं, (चोरी का काम) आँखों से देखने पर डर लगता है (प्रत्यक्ष में भी चोरी का काम भयदायक है); किंतु (जिसका चोरी से प्रेम है, ऐसा) चोर अपने हृदय से चोरी नहीं छोड़ता (भले विवश होकर चोरी न कर सके)। इसके पीछे वह अपने सर्वस्व का विनाश भी सह लेता है। |
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