सूर कह्यौ भागवतऽनुसार -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलाबल




हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनारबिंद उर घरौं।
कहौं अब जज्ञपुरुष-अवतार। राजा, सुनौ ताहि चित धार।
सती दच्छ की पुत्री भई। दच्छ सो महादेव कौं दई।
ब्रह्मा, महादेव, रिषि सारे। इक दिन बैठै सभा मँझारे।
दच्छ प्रजापति हू तहँ आए। करि सनमान सबनि बैठाए।
काहू समाचार कछु पूछे। काहू सौं उनहूँ तब पूछे।
सिब की लागी हरि-पद तारी। तातैं नहिं उन आँखि उधारी।
महादेव बैठे रहि गए। दच्छ देखि अतिसय दुख तए।
महादेव कौं भाषत साधु। मैं तो देखौं बड़ौ असाधु।
जज्ञ-भाग याकौं नहिं दीजै। मेरी कह्यौ मानि करि लीजै।
नंदी-हृदय भयौ सुनि ताप। दियौ ब्राह्मननि कौं तिन साप।
स्त्रुति पढ़ि कै नुम नहिं उद्धरिहौ। बिद्या बेंचि जीविका करिहौ।
भृगु तब कोप होइ यौं कह्यौ। सुनत साप रिस तें तनु दह्यौ।
महादेव-हित जो तप करिहै। सोऊ भव-जल तैं नहिं तरिहै।
दच्छ प्रजापति जज्ञ रचायौ। माहदेव कौं नाहिं बुलायौ।
सुर गंधर्व जे नेवति बुलाए। ते सब बधुनि सहित तहें आए।
सती सबनि कौं आवत देखि। सिब सौं बोली बचन बिसेषि।
चलियै दच्छ गेह हम जाहिं। जद्यपि हमैं बुलायौ नाहिं।
मोकौं तौ यह अचरज आयौ। उन हमकौं कैसें बिसरायौ।
गुरु-पितु गृह बिनु बोलेहु जैऐ। है यह नीति नाहिं सकुचैऐ।
सिब कह्यौ, तुम भली नीति सुनाई। पै वह मानत है सत्राई।
उहाँ गए जो होइ अपमान। तौ यह भली बात नहिं जान।
दुर्जन-बचन सुनत दुख जैसो। बान लगें दुख होइ न तैसौ।
मम सत्राई हिरदैं आन। करिहै वह तेरौ अपमान।
भऐं अपमान उहाँ तू मरिहै। जौ मस-बचन हृदय नहिं धरिहै।
सती कह्यौ, मम भागिनी सात। सबै बुलाई ह्वैहैं तात।
मोहूँ कौं प्रभु आज्ञा दीजै। महाराज, अब बिलंब न कीजै।
बरंबार सती जब कह्यौ। तब सिब अन्तर्गत यौं लह्यौ।
सती सदा मम आज्ञाकारी। कहति जो यों बिधि बारंबारी।
दीखति है कछु होवनहारी। सों काहू पै जाइ न टारी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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