सूरत दीनानाथ से लगी,
तू तो समझ सुहागण सुरता नार। (टेक)
लगनी लहँगों पहर सुहागण, बीती जाय बहार।
धन जोबन है पावणा री, मिलै न दूजी बार।।1।।
राम नाम को चुड़लो पहिरो, प्रेम को सुरमो सार।
नक बेसर हरि नाम की, उतर चलो नी परले पार।।2।।
ऐसे बर को क्या बरूँ, जो जन्मे और मर जाय।
बर बरिये एक साँवरो री, (मेरो) चुड़लो अमर हो जाय।।3।।
मैं जान्यो हरि मैं ठग्यो री, हरि ठग ले गयो मोय।
लख चोरासी मोरचा री, छिन में गेरया (छै) बिगोय।।4।।
सुरत चली जहाँ मैं चली री, कृष्ण नाम झनकार।
अविनाशी की पोल पर जी, मीराँ करै छै पुकार।।5।।[1]
राग - माड : ताल - दीपचन्दी दादरा
(चेतावनी)