सुनौ हौ या मोहन की बैन।
स्रवन सुनत सुधि बुधि सब बिसरी बिरह बिथा भई ऐन।।
गृह अँगना न सुहाइ मेरी सजनी नही परत चित चैन।
जब मुख देखौ स्याम सुंदर कौ तब सचुपावै नैन।।
रास रच्यौ बृंदावन महियाँ सब गोपिनि सुख दैन।
अपने अपने बानक बनि आई तट जमुना जल फैन।।
देवलोक सुरलोक बिसारी चंद्रा बिसरयौ रैन।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे दरस कौ चली मदन गढ़ लैन।। 9 ।।