सुनियै सुनियै हो धरि ध्यान -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


सुनियै सुनियै हो धरि ध्यान, सुधारस मुरली बाजै।
स्याम अधर पर बैठि बिराजति, सप्त सुरनि मिलि साजै।।
बिसरी सुधि बुधि गति सबहिनि सुनि बे‍नु मधुर कल गान।
मन-गति-पंगु भई ब्रज-जुवती, गंध्रव मोहे तान।।
खग-मृग थके, फलनि तृन तजिकै, बछरा पियत न छीर।
सिद्धि समाधि थके चतुरानन, लोचन मोचत नीर।।
महादेव की नारी छूटी, अति ह्वै रहे अचेत।
ध्यान टरयौ धुनि सो मन लाग्यौ, सुर-मुनि भए सचेत।।
जमुना उलटि बही अति ब्याकुल, मीन भए बलहीन।
पसु पच्छी सब थकित भए हैं, रहे इकटक लौलीन।।
इंद्रादिक, समकादिक, नारद, सारद, सुनि आवेस।
घोष-तरुनि आतुर उठि धाईं, तकि पति-पुत्र-अदेस।।
श्री बृंदाबन कुजं-कुंज प्रति, अति बिलास आंनद।
अनुरागी पिय प्यारी कैं संग, रस राचे सानंद।।
तिहुं भुवन भरि नाद प्रकास्यौ, गगन धरनि पाताल।
थकित भए तारागन सुनि कै, चंद भयौ बेहाल।।
नटवर वेष धरे नंद-नंदन, निरखि बिबस भयौ काम।
उर बनमाल चरन पंकज लों, नील जलद तनु स्याम।
जटित जराव मकर कुंडल छबि, पीत बसन सोभाइ।
बृंदाबन रस रास माधुरी, निरखि सूर बलि जाइ।।1183।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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