सुनाता मैं वैराग्य महत्त्व।
लूटता अर्थ धर्म औ स्वत्व।।
बिचारे भूले, भोले जीव।
समझते मुझको संत सजीव।।
ठगी का आता कभी न अन्त।
बना रहता मैं पूरा संत।।
नीच मैं डरा नहीं क्षण एक।
मिटानी चाही प्रभु की टेक।।
हुआ सब भाँति अन्त हैरान।
छुटानी कठिन हो गयी जान।।
चला तब मैं होकर अति खिन्न।
हुई सब मेरी आशा छिन्न।।
नहीं मैं मुँह दिखलाने जोग।
मुझे अब भूल जायँ सब लोग।।