सुनत तिहारी बातैं मोहन च्वै चले दोऊ नैन।
छुटि गई लोक-लाज आतुर ह्वै, रहि न सकत चित-चैन।।
उर काँप्यौ, तन पुलक पसीज्यौ, बिसरि गए मुख-बैन।
ठाढ़ी ही जैसे तैसैं झुकि, परी धरनि तिहि ऐन।।
कोउ सित, कोऊ कमल, कुंकुमा, कोउ धाई जल लैन।
ताहि कछू उपचार न लागत, डसी कठिन अहि-मैन।।
हौं पठई इक सखी सयानी, अनबोली दै सैन।
सूर स्याम राधिका मिलैं बिनु, कहा लगे दुख दैन।।749।।