सवैया
बिहरैं पिय प्यारी सनेह सने छहरैं चुनरी के फवा कहरैं।
सिहरैं नव जोबन रंग अनंग सुभंग अपांगनि की गहरैं।
बहरें रसखानि नदी रस की लहरैं बनिता कुल हू भहरैं।
कहरैं बिरही जन आतप सों लहरैं लली लाल लिये पहरैं।।225।।
सोई हुती पिय की छतियाँ लगि बाल प्रबीन महा मुद मानै।
केस खुले छहरैं बहरैं फहरैं छबि देखत मैन अमानै।
वा रस मैं रसखानि पगी रति रैन जगी अँखियाँ अनुमानै।
चंद पै बिंब औ बिंब कैरव कैरव पै मुकता प्रयानै।।226।।
अंगनि अंग मिलाइ दोऊ रसखानि रहे लिपटे तरु घाहीं।
संगनि संग अनंग को रंग सुरंग सनी पिय दै गल बाहीं।
बैन ज्यौं मैन सु ऐन सनेह को लूटि रहे रति अंदर जाहीं।
नीबी गहै कुच कंचन कुंभ कहै बनिता पिय नाही जु नाहीं।।227।।