सुजान-रसखान पृ. 80

सुजान-रसखान

फाग-लीला

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सवैया

खेलत फाग लख्‍यौ पिय प्‍यारी को ता मुख की उपमा किहिं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो बार न कीजै।।
ज्‍यौं ज्‍यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्‍यौं त्‍यौं छबीलो छकै छबि छाक सों हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै।।186।।

खेलत फाग सुहागभरी अनुरागहिं लालन कौं झरि कै।
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै।
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहिनी मौज मिटा करि कै।
जात चली रसखानि अली मदमत्‍त मनी-मन कों हरि कै।।187।।

फागुन लाग्‍यो जब तें तब तें ब्रजमंडल धूम मच्‍यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्‍यौ है।।
साँझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलाल लै खेल रच्‍यौ है।
को सजनी निलजी न भई अब कौन भटू जिहिं मान बच्‍यौ है।।188।।

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