सागर के धोखै हरि नागर, उर बेकाज मथ्यौ।
इतनैहू पर कहा न चितवत, क्यौ दुख जात सह्यौ।।
मंदर मैन प्रेम अहि जल मनु, अमर असुर अहि गात।
विभ्रम भए मथन हिय लागे, नाही ऊधौ बात।।
मुख छवि ससि अरु चंचलता हय दृग, बचन सुधा गज गौन।
बैद मिलन, जोबन मद सुरभी, सील मोद तरु जौन।।
लछमी गुन, रंभा दुति, भ्रू धनु, मनि भूषन है आनी।
ग्रीम संख, बँसुरी मुख रूठी, भई सब विष सानी।।
जतन जतन करि हरि जु मथे सब, रहे नही कछु तन मै।
मथौ नही किहिं काज ‘सूर’ प्रभु कहा बसी अब मन मैं।। 195 ।।