सहते मेरे लिये नित्य वे विविध भाँति संताप-
कटु कुवाच्य, कुत्सा तथापि वे क्षुब्ध न होते आप॥
देते मुझे नित्य सुख अतुलित, बाहर रहते मौन।
सदा उपेक्षा-सी दिखलाते, मनकी जाने कौन ?॥
रोती मैं न दुःखसे किंचित्, नहीं मुझे भय-त्रास।
मेरे नयन-सलिल का प्रियतम मर्म समझते खास॥
सत्य प्रीतिवश ही तुम करती प्रिय के अवगुण-गान।
चुभते किंतु हृदय में आकर अति विष-बाण समान॥
एक तरफ दुस्सह प्रिय निन्दा, एक ओर तव प्यार।
सखी! क्षमा करना, न समझना इसे कहीं दुत्कार॥
पर जिनको तुम बता रही हो निन्द्य दोषमय काम।
ऋषि-मुनि-वाञ्छित वे सद्गुण हैं श्लाघ्य विशुद्ध ललाम॥[1]