सहज गीता -रामसुखदास पृ. 81

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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पंद्रहवाँ अध्याय

(पुरुषोत्तम योग)

जो साधक परमात्मा के शरण हो जाते हैं, वे शरीर के मान-आदर और मोह से रहित हो जाते हैं, आसक्ति न रहने के कारण वे आसक्ति से पैदा होने वाले ममता आदि दोषों को जीत लेते हैं, वे नित्य-निरंतर परमात्मा में ही स्थित रहते हैं, वे संपूर्ण कामनाओं से रहित हो जाते हैं, वे सुख-दुख रूप द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे ऊँची स्थिति वाले मोह रहित साधक भक्त अविनाशी परमपद परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। उस परमपद को न सूर्य, न चंद्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है। कारण कि वे सूर्य, चंद्र, अग्नि आदि भी उस परमपद से ही प्रकाश पाकर भौतिक जगत् को प्रकाशित करते हैं। जहाँ जाने के बाद जीव लौटकर संसार में नहीं आता, वह अविनाशी पद ही मेरा परमधाम है।
[हम भगवान के अंश हैं। इसलिए भगवान् का जो धाम है, वही हमारा धाम है। इसी कारण उस धाम की प्राप्ति होने पर फिर लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता। जब तक हम अपने उस धाम में नहीं जाएंगे, तब तक हम मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में तथा लोकों में भटकते ही रहेंगे, कहीं भी ठहर नहीं सकेंगे। कारण कि यह संपूर्ण संसार परदेश है, स्वदेश नहीं। यह पराया घर है, अपना घर नहीं। विभिन्न योनियों में तथा लोकों में हमारा भटकना तभी बंद होगा, जब हम अपने असली घर में पहुँच जाएंगे।]


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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