सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
बारहवाँ अध्याय(भक्ति योग)(चौथा प्रकरण-) जो राग, द्वेष, हर्ष तथा शोक- इन चारों विकारों से सर्वथा रहित है और जो न शुभ कर्मों से राग करता है तथा न अशुभ कर्मों से द्वेष ही करता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। (पाँचवा प्रकरण-) जो शत्रु व मित्र में, मान व अपमान में, शरीर की अनुकूलता व प्रतिकूलता में और सुख व दुख में समान भाववाला है, जिसकी प्राणी-पदार्थों में किंचिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है, जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला है, जो निरंतर मेरे स्वरूप का मनन करता है, जो जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने या न होने में संतुष्ट रहता है, जिसकी रहने की जगह में तथा शरीर में ममता-आसक्ति नहीं है, और जिसकी बुद्धि मुझमें स्थिर है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। |
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