सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
ग्यारहवाँ अध्याय(विश्वरुपदर्शन योग)श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! तुम भयभीत मत होओ; क्योंकि मैंने प्रसन्न होकर ही अपनी सामर्थ्य से तुम्हें यह अत्यंत श्रेष्ठ, तेजस्वरूप, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप दिखाया है। इस प्रकार के विश्वरूप को तुम्हारे सिवाय पहले किसी ने नहीं देखा है। हे कुलश्रेष्ठ! मनुष्यलोक में इस प्रकार के विश्वरूप को कोई वेदों तथा शास्त्रों के अध्ययन से, यज्ञ से, दान से, उग्र तपस्या से और बड़ी-बड़ी क्रियाओं से भी नहीं देख सकता। इसे तो तुम जैसा कृपापात्र ही हमे कृपा से देख सकता है। मेरा ऐसा उग्ररूप देखकर तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिए तथा मोहित भी नहीं होना चाहिए। अब तुम निर्भय तथा प्रसन्न मनवाले होकर मेरे उसी चतुर्भुज रूप को भलीभाँति देखो। श्रीभगवान् बोले- तुमने मेरा यह जो चतुर्भुज रूप देखा है, इसके दर्शन अत्यंत ही दुर्लभ हैं। देवता भी इस रूप को देखने के लिए सदा लालायित रहते हैं। इस चतुर्भुज रूप को न तो वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता है। हे शत्रुतापन अर्जुन! मेरे इस चतुर्भुज रूप को तो केवल अनन्य भक्ति से ही तत्त्व से जाना जा सकता है, साकार रूप से देखा जा सकता है तथा प्राप्त किया जा सकता है। हे पाण्डव! जो केवल मेरी प्रसन्नता के लिए सब कर्म करता है, मेरी ही आश्रित रहता है, मेरा ही प्रेमी भक्त है, सर्वथा आसक्तिरहित है तथा किसी भी प्राणी के साथ वैर नहीं रखता, वह भक्त मुझे ही प्राप्त हो जाता है। |
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